ए जिंदगी
चल जरा दूर चलते हैं
इन दीवारों की चाह से
देवदारों के छाँव के बीच
जहाँ नालों का जंजाल न हो
कुछ कल कल करती नदियां हों
अनिश्चित शोर कोलाहल न हो
बस कुछ कलरव की ध्वनियां हों
मुद्दतें गुज़रीं
यही सोचते हुए
देवदार कट गए
राह तकते हुए
कुछ वादे पुराने
अभी भी रिझाते हैं
पहाड़ों पर लटके हुए फूल
मुझे अब भी बुलाते हैं
जब शहरों के जंगल
उन तक बढ़ते जाते हैं
तो सपने पुराने और याद आते हैं
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