न चाँद के....
न तारों के ख्वाब देखते हैं
हम तो बस
तुम्हारे ही ख्वाब देखते हैं
ऐ आजादी
तू ही आती है मेरे ख्यालों में
और तेरे आते ही हम
हर तरफ कत्ले आम देखते हैं
वो मौकापरस्त
नज़रें गडाए बैठे हैं
जिनको हम हमेशा
जेल के उस पार देखते हैं
कैद वो हैं या हम हैं???
यह समझ नहीं आता
पर जलती आखों के शोले
हम बार देखते हैं
बार-बार हमारे
ख्वाब जलाये जाते हैं
फिर नए सब्जबाग
दिखाए जाते हैं
मालूम होता है
मेरे ख्वाब भी अब सो चुके हैं
उन ख्वाबों को
जगाने के लिए
रोज़ ढोल नगाड़े बजाये जाते हैं
पर कम्बखत
यूँ सोये हैं चिर निंद्रा में
जैसे सदियों के जागे हों
(ख्वाब भी खूब समझते हैं असलियत अपनी
ख्वाब तो ख्वाब हैं !!!
वो खरीदकर ना लाये जाते हैं )