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Sunday, December 2, 2012

मफ़लर... का खेल



मफ़लर


एक ज़माना था जब माँ हमारे लिए स्कार्फ बुनती थी कि हमारे कान ढके रहें ... पर स्कार्फ बांधना मुझे बहुत बेकार लगता था... बस दिल करता था की पापा का वो चौखाने वाला मफ़लर मिल जाए गले में डालने को...इससे जादा याद नहीं आता मुझे... बस यह याद है की मफ़लर कि चाह थी।
मफ़लर को पेहेनना भी एक कला है... बच्चों के बस कि बात नहीं ....खैर वक़्त गुजरता गया....
और मफ़लर भी मिल गया... पर मुझे क्या पता था कि मैं चीज़ें संभालना अभी भी ना सीख पाया हूँ ..

जाड़े के दिन फिर से आए ... फिर....

" सर्द हवाओं और सूरज की किरणों में
बड़ी सांठ - गाँठ दिखती है आज कल
दोनों साथ में खूब इतराती हैं
जैसा मन हो वैसा मौसम बनाती है

मैं भी खेल सकता था साथ उनके
जो मेरा साथी भी मेरे साथ होता
बहुत याद करता हूँ उसको
मेरा मफ़लर ..मेरा प्यारा मफ़लर
जिसको कुछ रोज़ पहले खो चूका हूँ

अब वोह नहीं तो
कान छेद देते है ये मिलकर
सुन्दर नज़रें बैठे है
मेरे इंतज़ार में पलकें बिछा कर !!! "

सोच रहा हूँ माँ से कह दूँ स्कार्फ ही बून दें ... स्टाइल नहीं तो न सही ..
बाहर तो निकल सकूँगा .....सुन्दर नज़ारे तो देख सकूँगा